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जय राम रमा रमनं समनं

Jai Raam Rama Ramanam Samanam

तुलसीकृत रामचरित मानस

जय राम रमा रमनं समनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनम ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥

दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥

महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥

मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूली परे ॥

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्री निरादर के फल ए ॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते॥

अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ॥

नहीं राग न लोभ न मान मदा । तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पड़ पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ॥

मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रंधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥

गुण सील कृपा परमायतनं । प्रणमामि निरंतर श्रीरमनं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥

बार बार बर मागऊँ हरषी देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥

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