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कबीरदास दोहे

Kabirdaas Dohe

In Indian Bhakti tradition Kabirdaas holds a very unique position. Because of his efforts to unify the Hindu & Muslim community he is respected by both. He is quoted in Gurubani of Sikh tradition and chanted by Sufi’s by as well. He carries the wisdom of Vedantic Tradition and trying to address the contemporary challenges of his time. His style of communication is unique, as per his time. We popularly call it Dohe. There are many Dohe from Kabardas Ji. Over the last 6 centuries many got mixed up, and today it is very difficult to identify which one is actually said by Kabir and which not. Here is a list of 136 Dohe. Hope this gives peace to your heart and wisdom to live in your mind. Try to sing and absorbed them by contemplation on the meaning. If possible avoid external musical instruments and try to enjoy this in your own voice. These Dohe are not for music concerts but to transform the life of every individual. I am not giving the meaning of these because the presentation looks bad and moreover purpose of this blog is to inspire you to sing and dance with the cosmic existence. There are many sites you can look at for the purpose of these. These Dohe are written in alphabetic order and no other significance. May cosmos intelligence absorb you in that oneness with that which really exists.

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह। राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव। लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥
ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय। सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार । बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस। भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस। ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास । काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ। बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ। जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत। साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव। स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण। कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण॥
कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार । करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥
कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार । हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !॥
कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव। सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई । अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥
कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि । दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि । नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई। नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ॥
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई। बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई । चन्दन होसी बावना, नीब न कहसी कोई ॥
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास । समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी । एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ। सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय। सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर । जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ॥
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं । पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये, ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।
कबीरा ते नर अंध हैं, गुरू को कहते और, हरि रुठे गुरु ठौर है, गुरू रुठे नहीं ठौर!
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर। जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।
करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं। जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय । बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥
कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन। कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय। साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह। देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत । ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय। जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया।।
क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट। पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच। हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय। कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय।।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
गुरु गोविंद दोनो खड़े, काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय!!
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त। वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त।।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं। उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं।।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर। आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर।।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान।।
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान। बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान।।
गुरू गोविन्द दोऊ खङे का के लागु पाँव। बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।।
गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष। गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई। जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं । प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही । सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि । जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥
जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ। खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥
जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह । ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम। ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥
जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर। जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।
जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश। तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं। जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर। एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर।।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास। गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास।।
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह। माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय। सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए।
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत । सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय, कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी । मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ । मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार, तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय । ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त, अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर। अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
धीरे – धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ। ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ॥
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान। ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान।।
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट । कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल। कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत । सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत । अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई । राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥
बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश। खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार। औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।
बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर। कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।
बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच। बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत । आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥
बुरा जो देखन मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि, हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत । कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै । काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ॥
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी। जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग । तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।, पूँजी गयी बिलाय।
मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ । पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।
मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह। ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह॥
मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार। तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर,आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर !!
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
मूरख संग न कीजिए, लोहा जल न तिराई। कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि। कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥
मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास । मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ॥
यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ। ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत। गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार। कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥
लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट । पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ॥
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।
साईं इतना दीजिए, जा में कुटम समाय, मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूख जाय!!
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग । ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं । धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
सुख में सुमिरन सब करै दुख में करै न कोई, जो दुख में सुमिरन करै तो दुखा काहे होई!!
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह। सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास। सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना, आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई । मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध । कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥
हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि । आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥

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