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तिरुक्कूरळ हिन्दी अनुवाद

Thirukkural Complete in Hindi

There are at least 19 translations of the Kural in Hindi. The first translation was probably that of Khenand Rakat, published in 1924. The University of Madras came out with a translation by Sankar Raju Naidu in 1958. Hindi, being India’s official language of communication, it has obviously attracted the most number of translations among all north Indian languages. Surprisingly many of these translations are in verse! One of the last translations to appear is Kural Kavitā Valī, a translation by Ananda Sandhidut which appeared in 2000.

The translation presented here is that of Vekatakrishnan who translated it first in 1964. The second edition came after more than 30 years, thanks to N. Mahalingam of Sakti Finance Ltd, Chennai.

Source: M.G. Venkatakrishnan (Translator in Hindi), 1998. Thirukkural. Publisher: Sakthi Finance Ltd., Chennai

तिरुक्कुरल के तीन भाग हैं- धर्म, अर्थ और काम । उनमें क्र्मशः 38, 70 और 25 अध्याय हैं । हर एक अध्याय में 10 ‘कुरल’ के हिसाब से समूचे ग्रंथ में 1330 ‘कुरल’ हैं ।

ध्यान :
I prostrate before the Bhagwan and Guru Thiruvalluvar (तिरूवल्लूवर) who has given humanity this wonderful work The Thirukkural (तिरुक्कूरळ)

भाग–१: धर्म- कांड
अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति

1 अक्षर सबके आदि में, है अकार का स्थान। अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि भगवान ॥
2 विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा काम। श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥
3 हृदय-पद्‍म-गत ईश के, पाद-पद्‍म जो पाय। श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥
4 राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित जो लोग। दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥
5 जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन में लिप्त। अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥
6 पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु का किया विधान। धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥
7 ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त। तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥
8 धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत है धन्य। उसे छोड दुख-सिन्धु को, पार‍ न पाये अन्य ॥
9 निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, ‘सिर’ है केवल नाम। अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं किया प्रणाम ॥
10 भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार। ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥

अध्याय 2 . वर्षा- महत्व
11 उचित समय की वृष्टि से, जीवित है संसार। मानी जाती है तभी, वृष्टि अमृत की धार ॥
12 आहारी को अति रुचिर‍, अन्नरूप आहार। वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है आहार ॥
13 बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम में चूक। जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत से हो आति हूक ॥
14 कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया जाय। धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती यदि आय ॥
15 वर्षा है ही आति प्रबल, सब को कर बरबाद। फिर दुखियों का साथ दे, करे वही आबाद ॥
16 बिना हुए आकाश से, रिमझिम रिमझिम वृष्टि। हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी नहीं दृष्टि ॥
17 घटा घटा कर जल‍धि को, यदि न करे फिर दान। विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा जान ॥
18 देवाराधन नित्य का, उत्सव सहित अमंद। वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा बंद ॥
19 इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य तप कर्म। यदि पानी बरसे नहीं, टिकें न दोनों कर्म ॥
20 नीर बिना भूलोक का, ज्यों न चले व्यापार। कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा बिन आचार ॥

अध्याय 3. सन्यासी- महिमा
21 सदाचार संपन्न जो, यदि यति हों वे श्रेष्ठ। धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा श्रेष्ठ ॥
22 यति-महिमा को आंकने, यदि हो कोई यत्न। जग में मृत-जन-गणन सम, होता है वह यत्न ॥
23 जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण किया सन्यास। उनकी महिमा का बहुत, जग में रहा प्रकाश ॥
24 अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय राखे आप। ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा आप ॥
25 जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति अथाह। स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा गवाह ॥
26 करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं साधु महान। दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक वे जान ॥
27 स्पर्श रूप रस गन्ध औ’, शब्द मिला कर पंच। समझे इन्के तत्व जो, समझे वही प्रपंच ॥
28 भाषी वचन अमोध की, जो है महिमा सिद्ध। गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में करें प्रसिद्ध ॥
29 सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं चढ़े सुजान। उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर जान ॥
30 करते हैं सब जीव से, करुणामय व्यवहार। कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥
अध्याय 4. धर्म पर आग्रह
31 मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय। उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥
32 बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय। भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥
33 यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म। तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म।
34 मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म। बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥
35 क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार। इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥
36 बाद करें मरते समय’, सोच न यों, कर धर्म। जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥
37 धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण। शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥
38 बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म। जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥
39 धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ। अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥
40 करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान। निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥

अध्याय 5. गार्हस्थ्य
41 धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन। स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन ॥
42 उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन। जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥
43 पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु स्वयं मिल पाँच। इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच ॥
44 पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश। जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥
45 प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण। तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥
46 धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा निज धर्म। ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥
47 भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ। साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥
48 अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह। क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥
49 जीवन ही गृहस्थ्य का, कहलाता है धर्म। अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥
50 इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान। देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥

अध्याय 6. सहधर्मिणी
51 गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार। जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार ॥
52 गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ। सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है व्यर्थ ॥
53 गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव। गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव ॥
54 स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य। यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य ॥
55 पूजे सती न देव को, पूज जगे निज कंत। उसके कहने पर ‘बरस’, बरसे मेघ तुरंत ॥
56 रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत। गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत ॥
57 परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष। स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष ॥
58 यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान। तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान ॥
59 जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान। नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल समान ॥
60 गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान। उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान ॥

अध्याय 7. संतान-लाभ
61 बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर विभव सुयोग्य। हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य ॥
62 सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप। यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप ॥
63 निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान। अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान ॥
64 नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात। देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात ॥
65 निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ। टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥
66 मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान। तुतलाना संतान का, जो न सुना निज कान ॥
67 पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान। पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान ॥
68 विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष। उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष ॥
69 पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द। माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥
70 पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार। `धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥

अध्याय 8. प्रेम-भाव
71 अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी उर में प्यार। घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ नयन-जल-धार ॥
72 प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें सब निज काम। प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें हड्डी-चाम ॥
73 सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन से संयोग। मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥
74 मिलनसार के भाव को, जनन करेगा प्रेम। वह मैत्री को जन्म दे, जो है उत्तम क्षेम ॥
75 इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस का योग। प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें बुध लोग ॥
76 साथी केवल धर्म का, मानेंप्रेम, अजान। त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥
77 कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा ज्यों धर्म। प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥
78 नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो किसलय-युक्त। गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥
79 प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर का अंग। क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥
80 प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही सप्राण। चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥

अध्याय 9. अतिथि-सत्कार
81 योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार। आदर करके अतिथि का, करने को उपकार ॥
82 बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप। देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥
83 दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार। वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥
84 मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार। उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥
85 खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय। ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥
86 प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख। जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक ॥
87 अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान। जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान ॥
88 कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त’। यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त ॥
89 निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान। मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान ॥
90 सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प को, तो वह मुरझा जाय। मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय ॥

अध्याय 10. मधुर-भाषण
91 जो मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द। प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥
92 मन प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान। मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥
93 ले कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव। बिला हृद्‍गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥
94 दुख-वर्धक दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ। सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥
95 मृदुभाषी होना तथा, नम्र-भाव से युक्त। सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥
96 होगा ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान। चुन चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥
97 मधुर शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान। वक्ता को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥
98 ओछापन से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग। लोक तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥
99 मधुर वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप। कटुक वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥
100 रहते सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान। यों ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥

अध्याय 11. कृतज्ञता
101 उपकृत हुए बिना करे, यदि कोइ उपकार। दे कर भू सुर-लोक भी, मुक्त न हो आभार ॥
102 अति संकट के समय पर, किया गया उपकार। भू से अधिक महान है, यद्यपि अल्पाकार ॥
103 स्वार्थरहित कृत मदद का, यदि गुण आंका जाय। उदधि-बड़ाई से बड़ा, वह गुण माना जाय ॥
104 उपकृति तिल भर ही हुई, तो भी उसे सुजान। मानें ऊँचे ताड़ सम, सुफल इसी में जान ॥
105 सीमित नहिं, उपकार तक, प्रत्युपकार- प्रमाण। जितनी उपकृत-योग्यता, उतना उसका मान ॥
106 निर्दोषों की मित्रता, कभी न जाना भूल। आपद-बंधु स्नेह को, कभी न तजना भूल ॥
107 जिसने दुःख मिटा दिया, उसका स्नेह स्वभाव। सात जन्म तक भी स्मरण, करते महानुभाव ॥
108 भला नहीं है भूलना, जो भी हो उपकार। भला यही झट भूलना, कोई भी अपकार ॥
109 हत्या सम कोई करे, अगर बड़ी कुछ हानि। उसकी इक उपकार-स्मृति, करे हानि की हानि ॥
110 जो भी पातक नर करें, संभव है उद्धार। पर है नहीं कृतघ्न का, संभव ही निस्तार ॥

अध्याय 12. मध्यस्थता
111 मध्यस्थता यथेष्ट है, यदि हो यह संस्कार। शत्रु मित्र औ’ अन्य से, न्यायोचित व्यवहार ॥
112 न्यायनिष्ठ की संपदा, बिना हुए क्षयशील। वंश वंश का वह रहे, अवलंबन स्थितिशील ॥
113 तजने से निष्पक्षता, जो धन मिले अनन्त। भला, भले ही, वह करे तजना उसे तुरन्त ॥
114 कोई ईमान्दार है, अथवा बेईमान। उन उनके अवशेष से, होती यह पहचान ॥
115 संपन्नता विपन्नता, इनका है न अभाव। सज्जन का भूषण रहा, न्यायनिष्ठता भाव ॥
116 सर्वनाश मेरा हुआ, यों जाने निर्धार। चूक न्याय-पथ यदि हुआ, मन में बुरा विचार ॥
117 न्यायवान धर्मिष्ठ की, निर्धनता अवलोक। मानेगा नहिं हीनता, बुद्धिमान का लोक ॥
118 सम रेखा पर हो तुला, ज्यों तोले सामान। भूषण महानुभाव का, पक्ष न लेना मान ॥
119 कहना सीधा वचन है, मध्यस्थता ज़रूर। दृढ़ता से यदि हो गयी, चित्त-वक्रता दूर ॥
120 यदि रखते पर माल को, अपना माल समान। वणिक करे वाणीज्य तो, वही सही तू जान ॥

अध्याय 13. संयम्‍शीलता
121 संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास। झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानास ॥
122 संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान। श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान ॥
123 कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व। संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व ॥
124 बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील। पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील ॥
125 संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिये अशेष। वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष ॥
126 पंचेन्द्रिय-निग्राह किया, कछुआ सम इस जन्म। तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म ॥
127 चाहे औरोंको नहीं, रख लें वश में जीभ। शब्द-दोष से हों दुखी, यदि न वशी हो जीभ ॥
128 एक बार भी कटुवचन, पहुँचाये यदि कष्ट। सत्कर्मों के सुफल सब, हो जायेंगे नष्ट ॥
129 घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय। चोट लगी यदि जीभ की, कभी न मोटी जाय ॥
130 क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ। धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ ॥

अध्याय 14. आचारशीलता
131 सदाचार-संपन्नता, देती सब को श्रेय। तब तो प्राणों से अधिक, रक्षणीय वह ज्ञेय ॥
132 सदाचार को यत्न से, रखना सहित विवेक। अनुशीलन से पायगा, वही सहायक एक ॥
133 सदाचार-संपन्नता, है कुलीनता जान। चूके यदि आचार से, नीच जन्म है मान ॥
134 संभव है फिर अध्ययन, भूल गया यदि वेद। आचारच्युत विप्र के, होगा कुल का छेद ॥
135 धन की ज्यों ईर्ष्यालु के, होती नहीं समृद्धि। आचारहीन की नहीं, कुलीनता की वृद्धि ॥
136 सदाचार दुष्कर समझ, धीर न खींचे हाथ। परिभव जो हो जान कर, उसकी च्युति के साथ ॥
137 सदाचार से ही रही, महा कीर्ति की प्राप्ति। उसकी च्युति से तो रही, आति निन्दा की प्राप्ति ॥
138 सदाचार के बीज से, होता सुख उत्पन्न। कदाचार से ही सदा, होता मनुज विपन्न ॥
139 सदाचारयुत लोग तो, मुख से कर भी भूल। कहने को असमर्थ हैं, बुरे वचन प्रतिकूल ॥
140 जिनको लोकाचार की, अनुगति का नहिं ज्ञान। ज्ञाता हों सब शास्त्र के, जानों उन्हें अजान ॥

अध्याय 15. परदार- विरति
141 परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान। धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान ॥
142 धर्म-भ्रष्टों में नही, ऐसा कोई मूढ़। जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़ ॥
143 दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार। जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार ॥
144 क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक। यदि रति हो पर-दार में, तनिक न बुद्धि विवेक ॥
145 पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक। लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक ॥
146 पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार। ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार ॥
147 जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त। माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त ॥
148 पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान। धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान ॥
149 सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य। आलिंगन पर- नारि को, जो न करे वह योग्य ॥
150 पाप- कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़। पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़ ॥

अध्याय 16. क्षमाशीलता
151 क्षमा क्षमा कर ज्यों धरे, जो खोदेगा फोड़। निन्दक को करना क्षमा, है सुधर्म बेजोड़ ॥
152 अच्छा है सब काल में, सहना अत्याचार। फिर तो उसको भूलना, उससे श्रेष्ठ विचार ॥
153 दारिद में दारिद्रय है, अतिथि-निवारण-बान। सहन मूर्ख की मूर्खता, बल में भी बल जान ॥
154 अगर सर्व-गुण-पूर्णता, तुमको छोड़ न जाय। क्षमा-भाव का आचरण, किया लगन से जाय ॥
155 प्रतिकारी को जगत तो, माने नहीं पदार्थ। क्षमशील को वह रखे, स्वर्ण समान पदार्थ ॥
156 प्रतिकारी का हो मज़ा, एक दिवस में अन्त। क्षमाशीला को कीर्ति है, लोक-अंत पर्यन्त ॥
157 यद्यपि कोई आपसे, करता अनुचित कर्म। अच्छा उस पर कर दया, करना नहीं अधर्म ॥
158 अहंकार से ज़्यादती, यदि तेरे विपरीत। करता कोई तो उसे, क्षमा-भाव से जीत ॥
159 संन्यासी से आधिक हैं, ऐसे गृही पवित्र। सहन करें जो नीच के, कटुक वचन अपवित्र ॥
160 अनशन हो जो तप करें, यद्यपि साधु महान। पर-कटुवचन-सहिष्णु के, पीछे पावें स्थान ॥

अध्याय 17. अनसूयता
161 जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान। अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥
162 सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त। तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥
163 धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह। पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥
164 पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान। ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥
165 शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि। जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥
166 दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार। रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥
167 जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन। अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥
168 ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश। नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥
169 जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार। तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥
170 सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त। सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥

अध्याय 18. निर्लोभता
171 न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ। हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप ॥
172 न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज। लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज ॥
173 नश्वर सुख के लोभ में, वे न करें दुष्कृत्य। जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य ॥
174 जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक। दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक ॥
175 तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार। लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार ॥
176 ईश-कृपा की चाह से, जो न धर्म से भ्रष्ट। दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट ॥
177 चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न। उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न ॥
178 निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय। अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय ॥
179 निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान। श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान ॥
180 अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त। लोभ- हीनता- विभव से, होगी विजय अनन्त ॥

अध्याय 19. अपिशुनता
181 नाम न लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम। फिर भी अच्छा यदि वही, पाये अपिशुन नाम ॥
182 नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड। उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड ॥
183 चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ। भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र- उक्त फल हाथ ॥
184 कोई मूँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात। कहो पीठ पीछे नहीं, जो न सुचिंतित बात ॥
185 प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन। भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन ॥
186 परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष। उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष ॥
187 जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल। अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल ॥
188 मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म। जाने अन्यों के प्रति, क्या क्या करें कुकर्म ॥
189 क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार। क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार ॥
190 परछिद्रानवेषण सदृश, यदि देखे निज दोष। ति अविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष ॥

अध्याय 20. वृथालाप-निषेध
191 बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप। सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप ॥
192 बुद्धिमान जनवृन्द के,सम्मुख किया प्रलाप। अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप ॥
193 लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन। घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन ॥
194 संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त। करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण व नीति-वियुक्त ॥
195 निब्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान। हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान ॥
196 जिसको निब्फल शब्द में, रहती है आसक्ति। कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति ॥
197 कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द। मगर इसी में है भला, कहें न निब्फल शब्द ॥
198 उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान। महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान ॥
199 तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त। विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त ॥
200 कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ। कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ ॥

अध्याय 21. पाप-भीरुता
201 पाप-कर्म के मोह से, डरें न पापी लोग। उससे डरते हैं वही, पुण्य-पुरुष जो लोग ॥
202 पाप- कर्म दुखजनक हैं, यह है उनकी रीत। पावक से भीषण समझ, सो होना भयभीत ॥
203 श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता कहें, करके सुधी विचार। अपने रिपु का भी कभी, नहिं करना अपकार ॥
204 विस्मृति से भी नर नहीं, सोचे पर की हानि। यदि सोचे तो धर्म भी, सोचे उसकी हानि ॥
205 ‘निर्धन हूँ मैं’, यों समझ, करे न कोई पाप। अगर किया तो फिर मिले, निर्धनता-अभिशाप ॥
206 दुख से यदि दुष्कर्म के, बचने की है राय। अन्यों के प्रति दुष्टता, कभी नहीं की जाय ॥
207 अति भयकारी शत्रु से, संभव है बच जाय। पाप-कर्म की शत्रुता, पीछा किये सताय ॥
208 दुष्ट- कर्म जो भी करे, यों पायेगा नाश। छोड़े बिन पौरों तले, छाँह करे ज्यों वास ॥
209 कोई अपने आपको, यदि करता है प्यार। करे नहीं अत्यल्प भी, अन्यों का अपचार ॥
210 नाशरहित उसको समझ, जो तजकर सन्मार्ग। पाप-कर्म हो नहिं करे, पकड़े नहीं कुमार्ग ॥

अध्याय 22. लोकोपकारिता
211 उपकारी नहिं चाहते, पाना प्रत्युपकार। बादल को बदला भला, क्या देता संसार ॥
212 बहु प्रयत्न से जो जुड़ा, योग्य व्यक्ति के पास। लोगों के उपकार हित, है वह सब धन-रास ॥
213 किया भाव निष्काम से, जनोपकार समान। स्वर्ग तथा भू लोक में दुष्कर जान ॥
214 ज्ञाता शिष्टाचार का, है मनुष्य सप्राण ॥मृत लोगों में अन्य की, गिनती होती जान ॥
215 पानी भरा तड़ाग ज्यों, आवे जग का काम। महा सुधी की संपदा, है जन-मन-सुख धाम ॥
216 शिष्ट जनों के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति। ग्राम-मध्य ज्यों वृक्षवर, पावे फल-संपत्ति ॥
217 चूके बिन ज्यों वृक्ष का, दवा बने हर अंग। त्यों धन हो यदि वह रहे, उपकारी के संग ॥
218 सामाजिक कर्तव्य का, जिन सज्जन को ज्ञान। उपकृति से नहिं चूकते, दारिदवश भी जान ॥
219 उपकारी को है नहीं, दरिद्रता की सोच। ‘मैं कृतकृत्य नहीं हुआ’ उसे यही संकोच ॥
220 लोकोपकारिता किये, यदि होगा ही नाश। अपने को भी बेच कर, क्रय-लायक वह नाश ॥

अध्याय 23. दान
221 देना दान गरीब को, है यथार्थ में दान। प्रत्याशा प्रतिदान की, है अन्य में निदान ॥
222 मोक्ष-मार्ग ही क्यों न हो, दान- ग्रहण अश्रेय। यद्यपि मोक्ष नहीं मिले, दान-धर्म ही श्रेय ॥
223 ‘दीन-हीन हूँ’ ना कहे, करता है यों दान। केवल प्राप्य कुलीन में, ऐसी उत्तम बान ॥
224 याचित होने की दशा, तब तक रहे विषण्ण। जब तक याचक का वदन, होगा नहीं प्रसन्न ॥
225 क्षुधा-नियन्त्रण जो रहा, तपोनिष्ठ की शक्ति। क्षुधा-निवारक शक्ति के, पीछे ही वह शक्ति ॥
226 नाशक-भूक दरिद्र की, कर मिटा कर दूर। वह धनिकों को चयन हित, बनता कोष ज़रूर ॥
227 भोजन को जो बाँट कर, किया करेगा भोग। उसे नहीं पीड़ित करे, क्षुधा भयंकर रोग ॥
228 धन-संग्रह कर खो रहा, जो निर्दय धनवान। दे कर होते हर्ष का, क्या उसको नहिं ज्ञान ॥
229 स्वयं अकेले जीमना, पूर्ति के हेतु। याचन करने से अधिक, निश्चय दुख का हेतु ॥
230 मरने से बढ़ कर नहीं, दुख देने के अर्थ। सुखद वही जब दान में, देने को असमर्थ ॥

अध्याय 24. कीर्ति
231 देना दान गरिब को, जीना कर यश-लाभ। इससे बढ़ कर जीव को, और नहीं है लाभ ॥
232 करता है संसार तो, उसका ही गुण-गान। याचक को जो दान में, कुछ भी करें प्रदान ॥
233 टिकती है संसार में, अनुपम कीर्ति महान। अविनाशी केवल वही, और न कोई जान ॥
234 यदि कोई भूलोक में, पाये कीर्ति महान। देवलोक तो ना करें, ज्ञानी का गुण-गान ॥
235 ह्रास बने यशवृद्धिकर, मृत्यु बने अमरत्व। ज्ञानवान बिन और में, संभव न यह महत्व ॥
236 जन्मा तो यों जन्म हो, जिसमें होवे नाम। जन्म न होना है भला, यदि न कमाया नाम ॥
237 कीर्तिमान बन ना जिया, कुढ़ता स्वयं न आप। निन्दक पर कुढ़ते हुए, क्यों होता है ताप ॥
238 यदि नहिं मिली परंपरा, जिसका है यश नाम। तो जग में सब के लिये, वही रहा अपनाम ॥
239 कीर्तिहीन की देह का, भू जब ढोती भार। पावन प्रभूत उपज का, क्षय होता निर्धार ॥
240 निन्दा बिन जो जी रहा, जीवित वही सुजान। कीर्ति बिना जो जी रहा, उसे मरा ही जान ॥

अध्याय 25. दयालुता
241 सर्व धनों में श्रेष्ठ है, दयारूप संपत्ति। नीच जनों के पास भी, है भौतिक संपत्ति ॥
242 सत्-पथ पर चल परख कर, दयाव्रती बन जाय। धर्म-विवेचन सकल कर, पाया वही सहाय ॥
243 अन्धकारमय नरक है, जहाँ न सुख लवलेश। दयापूर्ण का तो वहाँ, होता नहीं प्रवेश ॥
244 सब जीवों को पालते, दयाव्रती जो लोग। प्राण-भयंकर पाप का, उन्हें न होगा योग ॥
245 दुःख- दर्द उनको नहीं, जो है दयानिधान। पवन संचरित उर्वरा, महान भूमि प्रमाण ॥
246 जो निर्दय हैं पापरत, यों कहते धीमान। तज कर वे पुरुषार्थ को, भूले दुःख महान ॥
247 प्राप्य नहीं धनरहित को, ज्यों इहलौकिक भोग। प्राप्य नहीं परलोक का, दयारहित को योग ॥
248 निर्धन भी फूले-फले, स्यात् धनी बन जाय। निर्दय है निर्धन सदा, काया पलट न जाय ॥
249 निर्दय-जन-कृत सुकृत पर, अगर विचारा जाय। तत्व-दर्श ज्यों अज्ञ का, वह तो जाना जाय ॥
250 रोब जमाते निबल पर, निर्दय करे विचार। अपने से भी प्रभल के, सम्मुख खुद लाचार ॥

अध्याय 26. माँस- वर्जन
251 माँस-वृद्धि अपनी समझ, जो खाता पर माँस। कैसे दयार्द्रता-सुगुण, रहता उसके पास ॥
252 धन का भोग उन्हें नहीं, जो न करेंगे क्षेम। माँसाहारी को नहीं, दयालुता का नेम ॥
253 ज्यों सशस्त्र का मन कभी, होता नहीं दयाल। रुच रुच खावे माँस जो, उसके मन का हाल ॥
254 निर्दयता है जीववध. दया अहिंसा धर्म। करना माँसाहार है, धर्म हीन दुष्कर्म ॥
255 रक्षण है सब जीव का, वर्जन करना माँस। बचे नरक से वह नहीं, जो खाता है माँस ॥
256 वध न करेंगे लोग यदि, करने को आहार। आमिष लावेगा नहीं, कोई विक्रयकार ॥
257 आमिष तो इक जन्तु का, व्रण है यों सुविचार। यदि होगा तो चाहिए, तजना माँसाहार ॥
258 जीव-हनन से छिन्न जो, मृत शरीर है माँस। दोषरहित तत्वज्ञ तो, खायेंगे नहिं माँस ॥
259 यज्ञ हज़रों क्या किया, दे दे हवन यथेष्ट। किसी जीव को हनन कर, माँस न खाना श्रेष्ठ ॥
260 जो न करेगा जीव-वध, और न माँसाहार। हाथ जोड़ सारा जगत, करता उसे जुहार ॥

अध्याय 27. तप
261 तप नियमों को पालते, सहना कष्ट महान। जीव-हानि-वर्जन तथा, तप का यही निशान ॥
262 तप भी बस उनका रहा, जिनको है वह प्राप्त। यत्न वृथा उसके लिये, यदि हो वह अप्राप्त ॥
263 भोजनादि उपचार से, तपसी सेवा-धर्म। करने हित क्या अन्य सब, भूल गये तप-कर्म ॥
264 दुखदायी रिपु का दमन, प्रिय जन क उत्थान। स्मरण मात्र से हो सके, तप के बल अम्लान ॥
265 तप से सब कुछ प्राप्य हैं, जो चाहे जिस काल। इससे तप-साधन यहाँ, करना है तत्काल ॥
266 वही पुरुष कृतकृत्य है, जो करता तप-कर्म। करें कामवश अन्य सब, स्वहानिकारक कर्म ॥
267 तप तप कर ज्यों स्वर्ण की, होती निर्मल कान्ति। तपन ताप से ही तपी, चमक उठें उस भाँति ॥
268 आत्म-बोध जिनको हुआ, करके वश निज जीव। उनको करते वंदना, शेष जगत के जीव ॥
269 जिस तपसी को प्राप्त है, तप की शक्ति महान। यम पर भी उसकी विजय, संभव है तू जान ॥
270 निर्धन जन-गणना अधिक, इसका कौन निदान। तप नहिं करते बहुत जन, कम हैं तपोनिधान ॥

अध्याय 28. मिथ्याचार
271 वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक। पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक ॥
272 उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम। समझ- बूंझ यदि मन करे, जो है दूषित काम ॥
273 महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय। व्याघ्र-चर्म आढे हुए, खेत चरे ज्यों गाय ॥
274 रहते तापस भेस में, करना पापाचार। झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार ॥
275 ‘हूँ विरक्त’ कह जो मनुज, करता मिथ्याचार। कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार ॥
276 मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान। मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान ॥
277 बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान। उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान ॥
278 नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस। मित्थ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश ॥
279 टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर। वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर ॥
280 साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम। उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम ॥

अध्याय 29. अस्तेय
281 निन्दित जीवन से अगर, इच्छा है बच जाय। चोरी से पर-वस्तु की, हृदय बचाया जाय ॥
282 चोरी से पर-संपदा, पाने का कुविचार। लाना भी मन में बुरा, है यह पापाचार ॥
283 चोरी-कृत धन में रहे, बढ़्ने का आभास। पर उसका सीमारहित, होता ही है नाश ॥
284 चोरी के प्रति लालसा, जो होती अत्यन्त। फल पोने के समय पर, देती दुःख अनन्त ॥
285 है गफलत की ताक में, पर-धन की है चाह। दयाशीलता प्रेम की, लोभ न पकड़े राह ॥
286 चौर्य-कर्म प्रति हैं जिन्हें, रहती अति आसक्ति। मर्यादा पर टिक उन्हें, चलने को नहिं शक्ति ॥
287 मर्यादा को पालते, जो रहते सज्ञान। उनमें होता है नहीं, चोरी का अज्ञान ॥
288 ज्यों मर्यादा-पाल के, मन में स्थिर है धर्म। त्यों प्रवंचना-पाल के, मन में वंचक कर्म ॥
289 जिन्हें चौर्य को छोड़ कर, औ’ न किसी का ज्ञान। मर्यादा बिन कर्म कर, मिटते तभी अजान ॥
290 चिरों को निज देह भी, ढकेल कर दे छोड़। पालक को अस्तेय व्रत, स्वर्ग न देगा छोड़ ॥

अध्याय 30. सत्य
291 परिभाषा है सत्य की, वचन विनिर्गत हानि। सत्य-कथन से अल्प भी न हो किसी को ग्लानि ॥
292 मिथ्या-भाषण यदि करे, दोषरहित कल्याण। तो यह मिथ्या-कथन भी, मानो सत्य समान ॥
293 निज मन समझे जब स्वयं, झूठ न बोलें आप। बोलें तो फिर आप को, निज मन दे संताप ॥
294 मन से सत्याचरण का, जो करता अभ्यास। जग के सब के हृदय में, करता है वह वास ॥
295 दान-पुण्य तप-कर्म भी, करते हैं जो लोग। उनसे बढ़ हैं, हृदय से, सच बोलें जो लोग ॥
296 मिथ्या-भाषण त्याग सम, रहा न कीर्ति-विकास। उससे सारा धर्म-फल, पाये बिना प्रयास ॥
297 सत्य-धर्म का आचरण, सत्य-धर्म ही मान। अन्य धर्म सब त्यागना, अच्छा ही है जान ॥
298 बाह्‍य-शुद्धता देह को, देता ही है तोय। अन्तः करण-विशुद्धता, प्रकट सत्य से जोंय ॥
299 दीपक सब दीपक नहीं, जिनसे हो तम-नाश। सत्य-दीप ही दीप है, पावें साधु प्रकाश ॥
300 हमने अनुसन्धान से, जितने पाये तत्व। उनमें कोई सत्य सम, पाता नहीं महत्व ॥

अध्याय 31. अक्रोध
301 जहाँ चले वश क्रोध का, कर उसका अवरोध। अवश क्रोध का क्या किया, क्या न किया उपरोध ॥
302 वश न चले जब क्रोध का, तब है क्रोध खराब। अगर चले बश फिर वही, सबसे रहा खराब ॥
303 किसी व्यक्ति पर भी कभी, क्रोध न कर, जा भूल। क्योंकि अनर्थों का वही, क्रोध बनेगा मूल ॥
304 हास और उल्लास को, हनन करेगा क्रोध। उससे बढ़ कर कौन है, रिपु जो करे विरोध ॥
305 रक्षा हित अपनी स्वयं, बचो क्रोध से साफ़। यदि न बचो तो क्रोध ही, तुम्हें करेगा साफ़ ॥
306 आश्रित जन का नाश जो, करे क्रोध की आग। इष्ट-बन्धु-जन-नाव को, जलायगी वह आग ॥
307 मान्य वस्तु सम क्रोध को, जो माने वह जाय। हाथ मार ज्यों भूमि पर, चोट से न बच जाय ॥
308 अग्निज्वाला जलन ज्यों, किया अनिष्ट यथेष्ट। फिर भी यदि संभव हुआ, क्रोध-दमन है श्रेष्ठ ॥
309 जो मन में नहिं लायगा, कभी क्रोध का ख्याल। मनचाही सब वस्तुएँ, उसे प्राप्य तत्काल ॥
310 जो होते अति क्रोधवश, हैं वे मृतक समान। त्यागी हैं जो क्रोध के, त्यक्त-मृत्यु सम मान ॥

अध्याय 32. अहिंसा
311 तप-प्राप्र धन भी मिले, फिर भी साधु-सुजान। हानि न करना अन्य की, मानें लक्ष्य महान ॥
312 बुरा किया यदि क्रोध से, फिर भी सधु-सुजान। ना करना प्रतिकार ही, मानें लक्ष्य महान ॥
313 ‘बुरा किया कारण बिना’, करके यही विचार। किया अगर प्रतिकार तो, होगा दुःख अपार ॥
314 बुरा किया तो कर भला, बुरा भला फिर भूल। पानी पानी हो रहा, बस उसको यह शूल ॥
315 माने नहिं पर दुःख को, यदि निज दुःख समान। तो होता क्या लाभ है, रखते तत्वज्ञान ॥
316 कोई समझे जब स्वयं, बुरा फलाना कर्म। अन्यों पर उस कर्म को, नहीं करे, यह धर्म ॥
317 किसी व्यक्ति को उल्प भी, जो भी समय अनिष्ट। मनपूर्वक करना नहीं, सबसे यही वरिष्ठ ॥
318 जिससे अपना अहित हो, उसका है दृढ़ ज्ञान। फिर अन्यों का अहित क्यों, करता है नादान ॥
319 दिया सबेरे अन्य को, यदि तुमने संताप। वही ताप फिर साँझ को, तुमपर आवे आप ॥
320 जो दुःख देगा अन्य को, स्वयं करे दुःख-भोग। दुःख-वर्जन की चाह से, दुःख न दें बुधलोग ॥

अध्याय 33. वध-निशेध
321 धर्म-कृत्य का अर्थ है, प्राणी-वध का त्याग। प्राणी-हनन दिलायगा, सर्व-पाप-फल-भाग ॥
322 खाना बाँट क्षुधार्त्त को, पालन कर सब जीव। शास्त्रकार मत में यही, उत्तम नीति अतीव ॥
323 प्राणी-हनन निषेध का, अद्वितीय है स्थान। तदनन्तर ही श्रेष्ठ है, मिथ्या-वर्जन मान ॥
324 लक्षण क्या उस पंथ का, जिसको कहें सुपंथ। जीव-हनन वर्जन करे, जो पथ वही सुपंथ ॥
325 जीवन से भयभीत हो, जो होते हैं संत। वध-भय से वध त्याग दे, उनमें वही महंत ॥
326 हाथ उठावेगा नहीं जीवन-भक्षक काल। उस जीवन पर, जो रहें, वध-निषेध-व्रत-पाल ॥
327 प्राण-हानि अपनी हुई, तो भी हो निज धर्म। अन्यों के प्रिय प्राण का, करें न नाशक कर्म ॥
328 वध-मूलक धन प्राप्ति से, यद्यपि हो अति प्रेय। संत महात्मा को वही, धन निकृष्ट है ज्ञेय ॥
329 प्राणी-हत्या की जिन्हें, निकृष्टता का भान। उनके मत में वधिक जन, हैं चण्डाल मलान ॥
330 जीवन नीच दरिद्र हो, जिसका रुग्ण शरीर। कहते बुथ, उसने किया, प्राण-वियुक्त शरीर ॥

अध्याय 34. अनित्यता
331 जो है अनित्यवस्तुएँ, नित्य वस्तु सम भाव। अल्पबुद्धिवश जो रहा, है यह नीच स्वभाव ॥
332 रंग-भूमि में ज्यो जमे, दर्शक गण की भीड़। जुड़े प्रचुर संपत्ति त्यों, छँटे यथा वह भीड़ ॥
333 धन की प्रकृति अनित्य है, यदि पावे ऐश्वर्य। तो करना तत्काल ही, नित्य धर्म सब वर्य ॥
334 काल-मान सम भासता, दिन है आरी-दांत। सोचो तो वह आयु को, चीर रहा दुर्दान्त ॥
335 जीभ बंद हो, हिचकियाँ लगने से ही पूर्व। चटपट करना चाहिये, जो है कर्म अपूर्व ॥
336 कल जो था, बस, आज तो, प्राप्त किया पंचत्व। पाया है संसार ने, ऐसा बड़ा महत्व ॥
337 अगले क्षण क्या जी रहें, इसका है नहिं बोध। चिंतन कोटिन, अनगिनत, करते रहें अबोध ॥
338 अंडा फूट हुआ अलग, तो पंछी उड़ जाय। वैसा देही-देह का, नाता जाना जाय ॥
339 निद्रा सम ही जानिये, होता है देहान्त। जगना सम है जनन फिर, निद्रा के उपरान्त ॥
340 आत्मा का क्या है नहीं, कोई स्थायी धाम। सो तो रहती देह में, भाड़े का सा धाम ॥

अध्याय 35. संन्यास
341 ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें आसक्ति। त्यों त्यों तद्‍गत दुःख से, मुक्त हो रहा व्यक्ति ॥
342 संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई आनन्द। संन्यासी बन समय पर, यदि होना आनन्द ॥
343 दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत राग। उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम त्याग ॥
344 सर्वसंग का त्याग ही, तप का है गुण-मूल। बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल ॥
345 भव- बन्धन को काटते, बोझा ही है देह। फिर औरों से तो कहो, क्यों संबन्ध- सनेह ॥
346 अहंकार ममकार को, जिसने किया समाप्त। देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा प्राप्त ॥
347 अनासक्त जो न हुए, पर हैं अति आसक्त। उनको लिपटें दुःख सब, और करें नहिं त्यक्त ॥
348 पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे धन्य। भव- बाधा के जाल में, फँसें मोह- वश अन्य ॥
349 मिटते ही आसक्ति के, होगी भव से मुक्ति। बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता की भुक्ति ॥
350 वीतराग के राग में, हो तेरा अनुराग। सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे पाय विराग ॥

I will put remaining text after this.

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