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Thirukkural in Hindi Chapter 6-10 - तिरुक्कूरळ

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My Chanting Mychanting Thiruvalluvar Thirukkural in Hindi

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तिरुक्कूरळ - हिन्दी अनुवाद Chapter 6-10 - with Mychanting
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Thirukkural in Hindi Chapter 6-10
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तिरुक्कुरल के तीन भाग हैं- धर्म, अर्थ और काम । उनमें क्र्मशः 38, 70 और 25 अध्याय हैं । हर एक अध्याय में 10 ‘कुरल’ के हिसाब से समूचे ग्रंथ के 133 अध्यायों में 1330 ‘कुरल’ हैं

Chapter 06-10

अध्याय 6. सहधर्मिणी
51 गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार। जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार ॥
52 गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ। सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है व्यर्थ ॥
53 गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव। गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव ॥
54 स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य। यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य ॥
55 पूजे सती न देव को, पूज जगे निज कंत। उसके कहने पर ‘बरस’, बरसे मेघ तुरंत ॥
56 रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत। गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत ॥
57 परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष। स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष ॥
58 यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान। तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान ॥
59 जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान। नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल समान ॥
60 गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान। उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान ॥

अध्याय 7. संतान-लाभ
61 बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर विभव सुयोग्य। हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य ॥
62 सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप। यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप ॥
63 निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान। अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान ॥
64 नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात। देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात ॥
65 निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ। टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥
66 मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान। तुतलाना संतान का, जो न सुना निज कान ॥
67 पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान। पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान ॥
68 विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष। उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष ॥
69 पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द। माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥
70 पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार। `धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥

अध्याय 8. प्रेम-भाव
71 अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी उर में प्यार। घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ नयन-जल-धार ॥
72 प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें सब निज काम। प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें हड्डी-चाम ॥
73 सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन से संयोग। मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥
74 मिलनसार के भाव को, जनन करेगा प्रेम। वह मैत्री को जन्म दे, जो है उत्तम क्षेम ॥
75 इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस का योग। प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें बुध लोग ॥
76 साथी केवल धर्म का, मानेंप्रेम, अजान। त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥
77 कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा ज्यों धर्म। प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥
78 नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो किसलय-युक्त। गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥
79 प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर का अंग। क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥
80 प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही सप्राण। चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥

अध्याय 9. अतिथि-सत्कार
81 योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार। आदर करके अतिथि का, करने को उपकार ॥
82 बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप। देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥
83 दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार। वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥
84 मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार। उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥
85 खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय। ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥
86 प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख। जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक ॥
87 अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान। जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान ॥
88 कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त’। यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त ॥
89 निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान। मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान ॥
90 सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प को, तो वह मुरझा जाय। मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय ॥

अध्याय 10. मधुर-भाषण
91 जो मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द। प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥
92 मन प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान। मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥
93 ले कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव। बिला हृद्‍गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥
94 दुख-वर्धक दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ। सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥
95 मृदुभाषी होना तथा, नम्र-भाव से युक्त। सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥
96 होगा ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान। चुन चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥
97 मधुर शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान। वक्ता को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥
98 ओछापन से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग। लोक तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥
99 मधुर वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप। कटुक वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥
100 रहते सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान। यों ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥

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Dr. Hari Thapliyaal

Dr. Hari Thapliyal is a seasoned professional and prolific blogger with a multifaceted background that spans the realms of Data Science, Project Management, and Advait-Vedanta Philosophy. Holding a Doctorate in AI/NLP from SSBM (Geneva, Switzerland), Hari has earned Master's degrees in Computers, Business Management, Data Science, and Economics, reflecting his dedication to continuous learning and a diverse skill set. With over three decades of experience in management and leadership, Hari has proven expertise in training, consulting, and coaching within the technology sector. His extensive 16+ years in all phases of software product development are complemented by a decade-long focus on course design, training, coaching, and consulting in Project Management. In the dynamic field of Data Science, Hari stands out with more than three years of hands-on experience in software development, training course development, training, and mentoring professionals. His areas of specialization include Data Science, AI, Computer Vision, NLP, complex machine learning algorithms, statistical modeling, pattern identification, and extraction of valuable insights. Hari's professional journey showcases his diverse experience in planning and executing multiple types of projects. He excels in driving stakeholders to identify and resolve business problems, consistently delivering excellent results. Beyond the professional sphere, Hari finds solace in long meditation, often seeking secluded places or immersing himself in the embrace of nature.

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