The Essence of Bhagwat Gita: 18th Chapter
The Essence of Bhagwat Gita: 18th ChapterPermalink
The 18th chapter of the Bhagavad Gita, titled Moksha-Sannyasa Yoga” (The Yoga of Liberation and Renunciation). It is one of the longest chapter with 78 sloka. Key takeaways from this chapter are discussed in this article. At this time I am writing only in Hindi and Devanagari script, in future when time permit I will translate this into English.
I have been reflecting on the Bhagavad Gita and other Hindu Sanskrit texts for a long time, dedicating significant effort to seeking the Truth. I practice Hinduism, but my inquiries in the Essence of Bhagavad Gita Series do not come from a place of mere belief but from the perspective of a sincere seeker of Truth. I consider myself a serious seeker, and I strive to pursue the Truth in every possible way.
Scriptures are not merely about memorization, chanting, gaining respect, receiving awards, earning the reputation of a great saint (Mahant), Mathadheesh, or Sadhu, or proving the sharpness of one’s memory. These are but minor aspects of life. The various shlokas from philosophical scriptures (Darshana Shastras) serve a higher purpose—to help us reflect, declutter our minds, and bring clarity to our lives. Storing scripture and photos on hardisk, bookmarking them, sharing them etc is meaningless if you have not paused to reflect or if you think you will do all this towards the end of life or before dying.
Difference between Renunciation (Sanyasa) and TyagaPermalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ 18.2
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ 18.3
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ 18.5
कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को “संन्यास” समझते हैं और विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को “त्याग” कहते हैं।
कुछ मनीषी जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं हैं।
कर्म त्याज्य - यज्ञ, दान और तप का त्याज नहीं है । यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (साधकों) को पवित्र करने वाले हैं।
Three Types of TyagaPermalink
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नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ 18.7
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ 18.8
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ 18.9
जो कर्म नियत हैं, उनका संन्यास उचित नहीं है। मोहवश उन्हें त्याग देना तामसिक त्याग कहलाता है।
कर्म को दु:ख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्यागना, इसे राजसिक त्याग कहते हैं । ऐसे त्यागका इच्छित फल प्राप्त नहीं होता है।
“कर्म करना कर्तव्य है” ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।
Five Causes for Karama InspirationPermalink
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कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।। 18.13
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ 18.14
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।। 18.15
समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं।
अधिष्ठान (शरीर), कर्ता ,विविध करण (इन्द्रियादि) ,विविध और पृथक्-पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा हेतु दैव है।
मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य (उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।
Thinking I am Karta is Bad Intellect.Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।। 18.16
अब इस स्थिति में जो मनुष्य असंस्कृत बुद्धि होने के कारण, आत्मा को कर्ता समझता हैं, वह दुर्मति पुरुष, यथार्थ नहीं देखता है।।
Who get the Bondage or Bandhan?Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। 18.17
जिस पुरुष में अहंकार (कर्ता) का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है।।
What provoke us to do the Karma?Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः। । 18.18
कर्म की प्रेरणा तीन प्रकार से हो सकती है
1- ज्ञानं - ज्ञाता के मन में उत्पन्न हुई इच्छा के रूप में
2- ज्ञेयं - ज्ञेय वस्तु के प्रलोभन से
3- परिज्ञाता - पूर्वानुभूत भोग (ज्ञात सुख) की स्मृति से
अन्तकरण में कर्म की प्रेरणा उत्पन्न होने के पश्चात् उसको पूर्ण करने के लिए त्रिविध कर्मसंग्रह (कर्ता, करण और कर्म नामक त्रिपुटी) की आवश्यकता होती है.
Three Types of Jñāna (Knowledge)Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।। 18.20
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। 18.21
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ।। 18.22
जिस ज्ञान से मनुष्य, विभक्त रूप में स्थित समस्त भूतों में एक अविभक्त और अव्यय (अविनाशी) स्वरूप को देखता है, वह ज्ञान को सात्त्विक जानो।
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य समस्त भूतों में नाना भावों को पृथक्-पृथक् जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस जानो।
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य (शरीर) में ही आसक्त हो जाता है, वह कारण (हेतु) का विचार ही नहीं करते। ऐेसे अल्प एवं तत्त्वार्थ से रहित ज्ञान को तामसिक ज्ञान कहते हैं।
Three Types of Actions (Karma)Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।। 18.23
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 18.24
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।। 18.25
नियत कर्म जो संगरहित, राग द्वेष रहित, फल प्राप्ति की इच्छा के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म कहलाता है।
जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है तथा फल की कामना वाले, अहंकारयुक्त भाव के द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है।
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामस कहलाता है।।
Three Types of Doers (Kartā)Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।। 18.26
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। 18.27
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।। 18.28
संगरहित, अहंमन्यता से रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य की सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहा जाता है।
रागी, कर्मफल का इच्छुक, लोभी, हिंसक स्वभाव वाला, अशुद्ध और हर्षशोक से युक्त कर्ता राजस कहलाता है।
अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री कर्ता तामस कहा जाता है।
Three Types of Buddhi (Intellect)Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। 18.30
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।। 18.31
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।।1 8.32
जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य और अकार्य, भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।
जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कार्य और अकार्य को यथावत् नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।
तमस् (अन्ध:कार) से आवृत जो बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है और सभी पदार्थों को विपरीत रूप से जानती है, वह बुद्धि तामसी है।
Three Types of Dhṛti (Determination)**Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। 18.33
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।। 18.34
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।। 18.35
जो धृति मन प्राण इन्द्रियों की क्रियाओं को योगाभ्यास तथा एक लक्ष्यानुसंधान की सहायता से संयमित करता है। वह सात्त्विक धृति है।
कर्मफल का इच्छुक पुरुष अति आसक्ति (प्रसंग) से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और काम (तीन पुरुषार्थों) को धारण करता है। वह धृति राजसी है।
दुर्बुद्धि मनुष्य जिस धारणा के द्वारा, स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद को नहीं त्यागता है। वह धृति तामसी है।
Four Divisions of Varna (Based on Guna and Karma)Permalink
Sloka in Devanagari & Hindi - 18.41Permalink
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप। स्वभावप्रभवैर्गुणैः कर्माणि प्रविभक्तानि ॥ 18.41
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म उनके स्वभाव और गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।
- Brahmanas (scholars & priests) - wisdom, peace, knowledge
- Kshatriyas (warriors & rulers) - courage, strength, leadership
- Vaishyas (merchants & farmers) - commerce, trade, wealth creation
- Shudras (workers & service providers) - labor, support, craftsmanship
The Role Bhakti in knowing the Supreme TruthPermalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥ (18.55)
भक्ति के द्वारा ही कोई मुझे तत्त्वत: जान सकता है। जब वह मुझे तत्त्व से जान लेता है, तब वह मुझमें प्रवेश करता है। (भक्ति ज्ञान का परिणाम होनी चाहिए, बुद्धि को शून्य करके नहीं वरन बुद्धि से परे जाकर। जब सारे तर्क समाप्त हो जायें न कि स्मृति एवं तर्क के अभाव और हताशा में)
Path to Moksha (Liberation)Permalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ 18.66
सभी धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत करो।
Warning in the 18th ChapterPermalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥ 18.59
य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥ 18.68
यः श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥ 18.71
यदि अहंकारवश तुम जो यह सोच रहे हो, “मैं युद्ध नहीं करूंगा”, यह तुम्हारा निश्चय मिथ्या है। तुम्हारी प्रकृति तुम्हें प्रवृत्त करेगी।
जो मुझमें भक्ति करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है।
जो श्रद्धावान् और अनसूय (दोषदृष्टि रहित) व्यक्ति इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी पुण्यकर्मों जैसे शुभ लोकों को प्राप्त कर लेगा।
Sanjay told Dritrashtra the Result of war before it startedPermalink
Sloka in Devanagari & HindiPermalink
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।