तिरुक्कूरळ Chapter 1-5
तिरुक्कूरळ
Thirukkural in Hindi Chapter 1 to 5
हिन्दी अनुवाद Chapter 1-5
There are at least 19 translations of the Kural in Hindi. The first translation was probably that of Khenand Rakat, published in 1924. The University of Madras came out with a translation by Sankar Raju Naidu in 1958. Hindi, being India’s official language of communication, it has obviously attracted the most number of translations among all north Indian languages. Surprisingly many of these translations are in verse! One of the last translations to appear is Kural Kavitā Valī, a translation by Ananda Sandhidut which appeared in 2000.
The translation presented here is that of Vekatakrishnan who translated it first in 1964. The second edition came after more than 30 years, thanks to N. Mahalingam of Sakti Finance Ltd, Chennai.
Source: M.G. Venkatakrishnan (Translator in Hindi), 1998. Thirukkural. Publisher: Sakthi Finance Ltd., Chennai
तिरुक्कुरल के तीन भाग हैं- धर्म, अर्थ और काम । उनमें क्र्मशः 38, 70 और 25 अध्याय हैं । हर एक अध्याय में 10 ‘कुरल’ के हिसाब से समूचे ग्रंथ में 1330 ‘कुरल’ हैं ।
ध्यान :
I prostrate before the Bhagwan and Guru Thiruvalluvar (तिरूवल्लूवर) who has given humanity this wonderful work The Thirukkural (तिरुक्कूरळ)
भाग–१: धर्म- कांड
अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति
1 अक्षर सबके आदि में, है अकार का स्थान। अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि भगवान ॥
2 विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा काम। श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥
3 हृदय-पद्म-गत ईश के, पाद-पद्म जो पाय। श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥
4 राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित जो लोग। दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥
5 जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन में लिप्त। अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥
6 पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु का किया विधान। धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥
7 ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त। तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥
8 धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत है धन्य। उसे छोड दुख-सिन्धु को, पार न पाये अन्य ॥
9 निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, ‘सिर’ है केवल नाम। अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं किया प्रणाम ॥
10 भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार। ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥
अध्याय 2 . वर्षा- महत्व
11 उचित समय की वृष्टि से, जीवित है संसार। मानी जाती है तभी, वृष्टि अमृत की धार ॥
12 आहारी को अति रुचिर, अन्नरूप आहार। वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है आहार ॥
13 बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम में चूक। जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत से हो आति हूक ॥
14 कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया जाय। धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती यदि आय ॥
15 वर्षा है ही आति प्रबल, सब को कर बरबाद। फिर दुखियों का साथ दे, करे वही आबाद ॥
16 बिना हुए आकाश से, रिमझिम रिमझिम वृष्टि। हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी नहीं दृष्टि ॥
17 घटा घटा कर जलधि को, यदि न करे फिर दान। विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा जान ॥
18 देवाराधन नित्य का, उत्सव सहित अमंद। वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा बंद ॥
19 इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य तप कर्म। यदि पानी बरसे नहीं, टिकें न दोनों कर्म ॥
20 नीर बिना भूलोक का, ज्यों न चले व्यापार। कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा बिन आचार ॥
अध्याय 3. सन्यासी- महिमा
21 सदाचार संपन्न जो, यदि यति हों वे श्रेष्ठ। धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा श्रेष्ठ ॥
22 यति-महिमा को आंकने, यदि हो कोई यत्न। जग में मृत-जन-गणन सम, होता है वह यत्न ॥
23 जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण किया सन्यास। उनकी महिमा का बहुत, जग में रहा प्रकाश ॥
24 अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय राखे आप। ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा आप ॥
25 जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति अथाह। स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा गवाह ॥
26 करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं साधु महान। दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक वे जान ॥
27 स्पर्श रूप रस गन्ध औ’, शब्द मिला कर पंच। समझे इन्के तत्व जो, समझे वही प्रपंच ॥
28 भाषी वचन अमोध की, जो है महिमा सिद्ध। गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में करें प्रसिद्ध ॥
29 सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं चढ़े सुजान। उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर जान ॥
30 करते हैं सब जीव से, करुणामय व्यवहार। कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥
अध्याय 4. धर्म पर आग्रह
31 मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय। उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥
32 बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय। भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥
33 यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म। तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म।
34 मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म। बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥
35 क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार। इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥
36 बाद करें मरते समय’, सोच न यों, कर धर्म। जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥
37 धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण। शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥
38 बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म। जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥
39 धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ। अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥
40 करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान। निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥
अध्याय 5. गार्हस्थ्य
41 धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन। स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन ॥
42 उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन। जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥
43 पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु स्वयं मिल पाँच। इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच ॥
44 पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश। जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥
45 प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण। तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥
46 धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा निज धर्म। ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥
47 भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ। साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥
48 अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह। क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥
49 जीवन ही गृहस्थ्य का, कहलाता है धर्म। अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥
50 इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान। देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥
I have taken Hindi Text from this website and corrected many grammatical errors and putting it here for my Devnagari and Hindi readers.